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बालू का टीला

  • लेखक की तस्वीर: Swami Yugal Sharan Ji
    Swami Yugal Sharan Ji
  • 10 अप्रैल
  • 1 मिनट पठन

अपडेट करने की तारीख: 16 अप्रैल

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नदी अपनी उत्पत्ति स्थल से निरंतर बहती हुई, पहाड़ों, जंगलों और रेगिस्तानों को पार करती हुई सागर तक पहुँचती है। वह न कहीं रुकती है, न ही विश्राम करती है, जब तक कि वह अपने "पूर्ण" – अर्थात् सागर – में मिल न जाए। नदी अपने पूर्ण का एक "अंश" है। यह प्रकृति का नियम है कि "अंश" सदैव अपने "पूर्ण" से मिलने की लालसा रखता है।


लेकिन इस यात्रा में नदी मिट्टी, रेत, चट्टानों के टुकड़े और अनेक प्रकार की गंदगी व अपशिष्ट अपने साथ बहा लाती है। जब वह सागर तक पहुँचती है, तब एक बाधा सामने आती है। सागर कहता है –"मैं तुम्हें शुद्धतम रूप में स्वीकार करना चाहता हूँ, और तुम तो हर प्रकार की मिलावट के साथ आ रही हो! जो कुछ भी तुमने रास्ते में इकट्ठा किया है, उसे छोड़ दो, फिर मेरे पास आओ।"


सागर रेत को अस्वीकार कर देता है, लेकिन शुद्ध जल को स्वीकार कर लेता है। इसी से बालू का टीला बनता है।

ठीक उसी प्रकार, जब से हम इस धरती पर आए हैं, हम केवल जानकारी ही इकट्ठा करते जा रहे हैं। हर परिस्थिति, हर व्यक्ति से हमारा मन – चाहे जागरूकता में हो या अचेतन रूप में – कुछ न कुछ संग्रह करता रहता है।


यदि हमारी भक्ति न तो दृढ़ है, न ही एकनिष्ठ, तो हम ८४ लाख योनियों में भटकने के लिए बाध्य हैं। इसलिए, केवल वही जीव भगवान को प्राप्त कर सकता है जिसकी भक्ति शुद्ध, एकनिष्ठ, अडिग और निःस्वार्थ हो।



राधे राधे।


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