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आरती का महत्व

  • लेखक की तस्वीर: Swami Yugal Sharan Ji
    Swami Yugal Sharan Ji
  • 10 अप्रैल
  • 2 मिनट पठन

अपडेट करने की तारीख: 16 अप्रैल


नित्य आरती का अनुष्ठान हमारे जीवन में गहन महत्व रखता है—यह भावना श्री महाराज जी को अत्यंत प्रिय है। सनातन धर्म की परंपरा में श्रीकृष्ण की नित्य दिनचर्या आरती से प्रारंभ होती है और आरती पर ही समाप्त होती है।


परंतु “आरती” शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है?

यदि हम इसे विभाजित करें, तो "आ" का अर्थ है सर्वत्रता, जबकि "रति" प्रेम को दर्शाता है।


आरती एक गहन आभार का भाव है, एक हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति जो प्रतिध्वनित होती है:

"हे प्रभु, आपने मुझे यह मानव देह प्रदान की।"


इस पर चिंतन करते हुए, हमें रामचरितमानस (७/४३/३) की यह पंक्ति स्मरण होती है:

"कबहुं करि करुना नर देहि",


जो इस बात को रेखांकित करती है कि दयालु प्रभु कभी-कभी यह दुर्लभ मानव जन्म प्रदान करते हैं।

मेरे शरीर की जटिल रचना दिव्य प्राणियों द्वारा की गई, जिनके हाथ आपकी ईश्वरीय प्रेरणा से संचालित थे। यह आप ही थे, जिन्होंने मेरी माता के गर्भ में आवश्यक पोषण की व्यवस्था की। माँ के हृदय में उत्पन्न वात्सल्य का स्रोत आप ही हैं। मेरे प्रियजनों एवं परिचितों की शुभकामनाएँ, सब आपकी कृपा से मिलीं। आपने मेरे कर्मों का लेखा-जोखा सुनिश्चित किया, जिसे प्रारब्ध कहा गया, साथ ही पुरुषार्थ का अवसर भी प्रदान किया। यह संपूर्ण ब्रह्मांड आपकी देन है, और मेरे पोषण हेतु मैं सदा आपके ऋणी रहूँगा। यह जीवन अनन्त संभावनाओं से परिपूर्ण है, मानवता के कल्याण हेतु। मैं आपको साष्टांग प्रणाम करता हूँ।


आरती एक दृढ़ प्रतिज्ञा है—असंख्य जीवनों को व्यर्थ करने की प्रवृत्ति को समाप्त करने का संकल्प। जैसे एक दीपक स्वयं को और अपने आसपास को प्रकाशित करता है, वैसे ही मेरा प्रण है कि मैं अपने जीवन और उससे जुड़े प्रत्येक अंश को आलोकित करूँ। यह जीवन आपके प्रति मेरी अटल प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करेगा। आप जो कुछ भी मुझे दिए हैं—तन, मन और प्राण—मैं उसे समर्पित करने के लिए तैयार हूँ।आपकी कृपा हेतु कृतज्ञता से भरे और आपकी अपेक्षाओं को पूर्ण करने के संकल्प से दृढ़, आरती हमारी एक गंभीर प्रतिज्ञा का प्रमाण है।


दीये के जलने का प्रतीकात्मक अर्थ अत्यंत गूढ़ है।जब दीपक केवल एक ओर से जलता है, तो उसका प्रकाश शीघ्र मद्धम हो जाता है, परंतु जब वह कपूर से आच्छादित होता है, तो वह प्रज्वलित होकर तेजस्वी प्रकाश फैलाता है। ठीक उसी प्रकार, जब हमारे कर्म शास्त्र और गुरु की आज्ञा से निर्देशित होते हैं, तो वे केवल कर्तव्य नहीं रहते, बल्कि वे दिव्यता को प्राप्त करते हैं।


यह आरती का सार है—जहाँ हम तन, मन और प्राण को हरि गुरु की सेवा में अर्पित करने का संकल्प लेते हैं। यह हमारे मूल कर्तव्य का स्मरण कराता है, जो हमें दिव्य प्रेम की अग्नि से स्वयं को प्रज्वलित कर, अपने और संसार को प्रकाशित करने हेतु प्रेरित करता है।


आरती का क्षण अनेक भावों को समेटे होता है। जब हम यह अनुष्ठान करें, तो हमारा मन कृतज्ञता और संकल्प से परिपूर्ण हो।प्रभु ने हमें यह शरीर, यह मन प्रदान किया है—हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हीं की देन है। इसलिए, आइए हम हरि गुरु की सेवा अपनी पूर्ण क्षमता से करें, और आरती के वास्तविक उद्देश्य को आत्मसात करें।





राधे राधे




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